09-04-2023, 01:14 PM
केंद्र सरकार ने ‘एक देश एक चुनाव’ की संभावना तलाशने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमिटी बनाई है.
दिलचस्प बात यह है कि इस घोषणा के एक दिन पहले ही सरकार ने 18 से 22 सितंबर के बीच संसद का विशेष सत्र बुलाने का एलान किया था.
हालांकि अभी तक सत्र क्यों बुलाया गया है, इस बारे में सरकार ने जानकारी सार्वजनिक नहीं की है.
इस ख़बर को हिंदुस्तान टाइम्स अखबार ने अपने यहाँ प्रमुखता से जगह दी है.
संसदीय कार्यमंत्री प्रह्लाद जोशी का कहना है, "अभी तो कमिटी बनाई है. इतना घबराने की क्या ज़रूरत है? कमिटी बनाई है, फिर इसकी रिपोर्ट आएगी. कल से ही हो जाएगा, ऐसा तो हमने नहीं कहा है."
साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश में एक साथ चुनाव कराने की बात करते आए हैं. राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए राम नाथ कोविंद ने भी इसकी वकालत की थी.
ख़बर के मुताबिक़ पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने भाषण में इसका समर्थन किया था.
देश में एक साथ चुनाव कराने का मुद्दा सिर्फ़ राजनीतिक नहीं है, इससे क़ानूनी और कई जटिल संवैधानिक प्रश्न भी जुड़े हैं.
हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक़ एक साथ चुनाव कराने के विरोध में यह तर्क दिया जा रहा है कि ऐसा करना संविधान की मूल संरचना के साथ छेड़छाड़ करना है और यह भारतीय लोकतंत्र के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा.
आज़ादी के बाद कुछ दशकों तक एक साथ चुनाव कराने के पीछे एक कारण यह था कि देश की राजनीति में कांग्रेस पार्टी का कब्जा था. उस समय क्षेत्रीय पार्टियां शक्तिशाली नहीं थीं.
ख़बर के मुताबिक़ राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 356 का बार-बार इस्तेमाल किया, जिससे देश में एक साथ चुनाव कराने की जो व्यवस्था चल रही थी वह पटरी से उतर गई.
साल 1966 से 1977 के बीच अलग अलग राज्यों में 39 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया. अपनी पहली सालाना रिपोर्ट में चुनाव आयोग ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की सिफ़ारिश की थी और इसके पीछे सात प्रमुख कारण बताए थे.
इसमें बताया गया था कि ऐसा करने से प्रशासनिक और दूसरे खर्चों में कमी आएगी और विकास के काम देश में तेज़ी से हो पाएंगे.
ख़बर के मुताबिक़ चुनाव आयोग ने 1983 की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश में एक साथ चुनाव कराने का समय आ गया है और इसके लिए एक सिस्टम तैयार करना चाहिए, लेकिन इस रिपोर्ट पर कार्रवाई नहीं की गई और न ही इसे आगे चर्चा के लिए रखा गया.
लॉ कमिशन की 170वीं रिपोर्ट
अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में साल 1999 में आई लॉ कमिशन की 170वीं रिपोर्ट का भी ज़िक्र किया है. इस रिपोर्ट में चुनाव से जुड़े क़ानूनों में सुधार की बात की गई थी. इस आयोग की अध्यक्षता जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी ने की थी.
आयोग का कहना था कि 1967 के बाद एक साथ चुनाव कराने की व्यवस्था ख़राब होने के पीछे कई कारण थे, जिसमें से एक केंद्र सरकार का राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाना है.
आयोग का कहना था कि ऐसी स्थितियों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि कब किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगेगा, बावजूद इसके राज्य विधानसभाओं में अलग-अलग चुनाव कराना एक अपवाद होना चाहिए और इसे नियम नहीं बनाना चाहिए.
रिपोर्ट में कहा गया था कि हर साल होने वाले चुनावी चक्र को ख़त्म कर देना चाहिए और देश को एक साथ चुनाव कराने की अपनी पुरानी व्यवस्था पर लौटना चाहिए.
ख़बर के मुताबिक़ आयोग ने स्वीकार किया कि हर पाँच साल में एक चुनाव कराने का लक्ष्य रातोरात हासिल नहीं किया जा सकता. ऐसा करने के लिए चुनाव कार्यक्रमों में कुछ बदलाव करने होंगे, जिसके लिए संवैधानिक संशोधन का रास्ता अपनाया जा सकता है.
आयोग का कहना था कि ऐसा करने के लिए एक या एक से ज़्यादा विधानसभाओं के कार्यकाल को छह महीने या उससे अधिक बढ़ाने या कम करने के लिए संविधान में संशोधन किया जा सकता है. अगर सभी राजनीतिक दल सहयोग करते हैं तो उनके हितों को नुक़सान पहुंचाए बिना इस काम को पूरा किया जा सकता है.
आयोग ने एक साथ चुनाव कराने के लिए एक और सुझाव दिया था. आयोग का कहना था कि विधानसभा के कार्यकाल को छोटा नहीं करने की स्थिति में ऐसा किया जा सकता है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवा लिए जाएं और विधानसभा के नतीजे तब तक रोक कर रखे जाएं, जब तक उसका कार्यकाल पूरा नहीं हो जाता.
आयोग ने इसके लिए ज़्यादा से ज़्यादा छह महीनों का समय सुझाया था, लेकिन यह रिपोर्ट भी बाद की सरकारों ने आगे नहीं बढ़ाई.
संसदीय स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट
अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में 2015 की संसदीय स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट का भी ज़िक्र किया है.
अपनी रिपोर्ट में संसदीय पैनल ने कहा था कि एक साथ चुनाव कराने से हर साल अलग-अलग चुनाव कराने पर होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी और चुनाव के समय लागू होने वाली आचार संहिता के चलते प्रभावित होने वाले विकास से जुड़े कामों पर पड़ने वाले गंभीर असर को रोका जा सकता है.
पैनल का कहना था कि चुनावों में काम करने वाले लोगों पर पड़ने वाले बोझ को भी ऐसा कर कम किया जा सकता है.
कांग्रेस सांसद एम सुदर्शन नचिअप्पन की अध्यक्षता में गठित समिति का कहना था कि अब तक गठित 16 लोकसभाओं में से सात समय से पहले ही भंग हो गई और इसके पीछे गठबंधन सरकारें थीं.
समिति ने सिफ़ारिश थी कि चुनाव दो चरणों में कराये जा सकते हैं. इसमें कहा गया कि कुछ विधानसभाओं के चुनाव आम चुनाव के ढाई साल बाद कराए जा सकते हैं और बची हुई विधानसभाओं के लोकसभा के कार्यकाल के ख़त्म होने पर एक साथ हो सकते हैं.
पैनल ने बताया कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 चुनाव आयोग को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल ख़त्म होने से छह महीने पहले चुनावों को अधिसूचित करने की अनुमति देता है.
उस समय समिति ने सुझाव दिया था कि विधानसभा चुनाव का प्रस्तावित पहला चरण नवंबर 2016 में आयोजित किया जा सकता है. इसमें उन सभी विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने की बात कही गई थी, जिनका कार्यकाल निर्धाधित चुनाव तारीख़ से पहले या बाद में एक साल के अंदर ख़त्म हो रहा हो.
इसी तरह दूसरे चरण का चुनाव 2019 में लोकसभा के आम चुनावों के साथ करवाए जाने की बात कही गई थी.
नीति आयोग का वर्किंग पेपर
रिपोर्ट में नीति आयोग के साल 2017 के वर्किंग पेपर का भी उल्लेख किया गया है, जिसमें एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव पर विचार-विमर्श किया गया था.
रिपोर्ट में एक साथ चुनावों से जुड़े मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों, वित्तीय और इससे जुड़े तर्कों का विश्लेषण किया गया. साथ ही ऐसा करने के लिए एक रूपरेखा भी तैयार की गई थी.
नीति आयोग के बिबेक देबरॉय और किशोर देसाई ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया कि 2009 के चुनावों में सरकारी ख़ज़ाने पर क़रीब एक हज़ार 115 करोड़ और 2014 के चुनावों में क़रीब तीन हज़ार 870 करोड़ का बोझ पड़ा था और अगर पार्टियों और उम्मीदवारों के खर्चे को मिला दिया जाए तो यह कुल खर्च कई गुना ज़्यादा हो जाता है.
रिपोर्ट में कहा गया था कि आचार संहिता लगने से विकास के कामों में रुकावट पैदा होती है और अलग अलग चुनाव होने से सरकारें और पार्टियां लगातार चुनावी कैंपेन में लगी रहती हैं.
कहा गया कि एक साथ चुनाव कराने से सरकारें उस चुनावी चक्र से बाहर आ पाएंगी और ज़्यादा बेहतर काम कर पाएंगी.
लॉ कमिशन की ड्राफ़्ट रिपोर्ट
अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में 2018 की लॉ कमिशन की ड्राफ्ट रिपोर्ट का भी ज़िक्र किया है.
रिपोर्ट के मुताबिक़ क़ानूनी मामलों के विभाग ने अप्रैल 2018 में भारत के विधि आयोग से एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे की जांच करने के लिए कहा था.
30 अगस्त, 2018 को, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बीएस चौहान की अध्यक्षता में आयोग ने इसे लेकर एक ड्राफ्ट रिपोर्ट पेश की, जिसमें एक साथ चुनाव कराने का पक्ष लिया गया.
रिपोर्ट में कहा गया कि ऐसा करने से पहले सबसे ज़रूरी है कि राजनीतिक दलों और इससे जुड़े लोगों से विचार विमर्श किया जाए और उससे बाद ही कोई अंतिम फ़ैसला लिया जाए.
रिपोर्ट में कहा गया कि संविधान के मौजूदा ढांचे के भीतर एक साथ चुनाव नहीं कराए जा सकते हैं. ऐसा करने के लिए जरूरी संशोधन करने होंगे और इसके लिए कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों के समर्थन की ज़रूरत पड़ेगी.
आयोग ने कहा कि ऐसा करने के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियमों में भी संशोधन करना होगा
ड्राफ्ट रिपोर्ट में तीन विकल्प दिए गए हैं. पहले विकल्प के तौर पर आयोग ने कुछ राज्यों में चुनाव का समय आगे बढ़ाने की सिफ़ारिश की, ताकि 2019 में सभी राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराए जा सकें
दूसरे विकल्प के तौर पर कहा गया कि 13 राज्यों के चुनाव 2019 के लोकसभा चुनावों के साथ कराए जा सकते हैं और बाकि 16 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के चुनाव 2021 में एक साथ हो सकते हैं, इस तरह पाँच साल में दो बार अलग-अलग मौक़ों पर राज्यों के चुनाव कराए जा सकते हैं.
तीसरे विकल्प के रूप में कहा गया कि अगर कुछ विधानसभाओं के चुनाव किसी एक साल में अलग-अलग महीनों में हैं तो उन्हें किसी ख़ास एक महीने में कराया जा सकता है.
दिसंबर 2022 में, भारत के 22वें विधि आयोग ने अपनी 2018 ड्राफ्ट रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत में एक साथ चुनाव कराना ज़रूरी और देशहित में है. आयोग ने एक साथ चुनाव कराने को लेकर छह सवालों का एक सेट तैयार किया है और उसके लिए सुझाव मांगे हैं.
किन संशोधनों की जरूरत होगी?
देश में एक साथ चुनाव कराने को आने वाली दिक्कतों कों लेकर फ्रंटलाइन ने भी रिपोर्ट प्रकाशित की है.
ख़बर के मुताबिक़ लॉ कमिशन की सिफ़ारिशों के अनुसार एक साथ चुनाव कराने की कवायद के लिए कम से कम पांच संवैधानिक संशोधनों की ज़रूरत होगी.
इसमें अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 शामिल है. रिपोर्ट में कहा गया है कि कमिशन ने 2018 में जो ड्राफ्ट रिपोर्ट जारी की थी उसमें कहा गया था कि इन संसोधनों को अपनाने के लिए कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों का साथ जरूरी है.
लोकसभा के पूर्व महासचिव पी.डी.टी. आचार्य ने फ्रंटलाइन को बताया कि एक साथ चुनाव कराने की योजना अभी शुरू नहीं हुई है. उन्होंने कहा कि चुनावों का पैटर्न बदल गया है और एक साथ चुनाव कराने के लिए सभी मौजूदा विधानसभाओं को भंग करने की जरूरत होगी.
दिलचस्प बात यह है कि इस घोषणा के एक दिन पहले ही सरकार ने 18 से 22 सितंबर के बीच संसद का विशेष सत्र बुलाने का एलान किया था.
हालांकि अभी तक सत्र क्यों बुलाया गया है, इस बारे में सरकार ने जानकारी सार्वजनिक नहीं की है.
इस ख़बर को हिंदुस्तान टाइम्स अखबार ने अपने यहाँ प्रमुखता से जगह दी है.
संसदीय कार्यमंत्री प्रह्लाद जोशी का कहना है, "अभी तो कमिटी बनाई है. इतना घबराने की क्या ज़रूरत है? कमिटी बनाई है, फिर इसकी रिपोर्ट आएगी. कल से ही हो जाएगा, ऐसा तो हमने नहीं कहा है."
साल 2014 में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश में एक साथ चुनाव कराने की बात करते आए हैं. राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए राम नाथ कोविंद ने भी इसकी वकालत की थी.
ख़बर के मुताबिक़ पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने भाषण में इसका समर्थन किया था.
देश में एक साथ चुनाव कराने का मुद्दा सिर्फ़ राजनीतिक नहीं है, इससे क़ानूनी और कई जटिल संवैधानिक प्रश्न भी जुड़े हैं.
हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक़ एक साथ चुनाव कराने के विरोध में यह तर्क दिया जा रहा है कि ऐसा करना संविधान की मूल संरचना के साथ छेड़छाड़ करना है और यह भारतीय लोकतंत्र के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा.
आज़ादी के बाद कुछ दशकों तक एक साथ चुनाव कराने के पीछे एक कारण यह था कि देश की राजनीति में कांग्रेस पार्टी का कब्जा था. उस समय क्षेत्रीय पार्टियां शक्तिशाली नहीं थीं.
ख़बर के मुताबिक़ राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 356 का बार-बार इस्तेमाल किया, जिससे देश में एक साथ चुनाव कराने की जो व्यवस्था चल रही थी वह पटरी से उतर गई.
साल 1966 से 1977 के बीच अलग अलग राज्यों में 39 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया. अपनी पहली सालाना रिपोर्ट में चुनाव आयोग ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की सिफ़ारिश की थी और इसके पीछे सात प्रमुख कारण बताए थे.
इसमें बताया गया था कि ऐसा करने से प्रशासनिक और दूसरे खर्चों में कमी आएगी और विकास के काम देश में तेज़ी से हो पाएंगे.
ख़बर के मुताबिक़ चुनाव आयोग ने 1983 की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश में एक साथ चुनाव कराने का समय आ गया है और इसके लिए एक सिस्टम तैयार करना चाहिए, लेकिन इस रिपोर्ट पर कार्रवाई नहीं की गई और न ही इसे आगे चर्चा के लिए रखा गया.
लॉ कमिशन की 170वीं रिपोर्ट
अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में साल 1999 में आई लॉ कमिशन की 170वीं रिपोर्ट का भी ज़िक्र किया है. इस रिपोर्ट में चुनाव से जुड़े क़ानूनों में सुधार की बात की गई थी. इस आयोग की अध्यक्षता जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी ने की थी.
आयोग का कहना था कि 1967 के बाद एक साथ चुनाव कराने की व्यवस्था ख़राब होने के पीछे कई कारण थे, जिसमें से एक केंद्र सरकार का राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाना है.
आयोग का कहना था कि ऐसी स्थितियों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि कब किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगेगा, बावजूद इसके राज्य विधानसभाओं में अलग-अलग चुनाव कराना एक अपवाद होना चाहिए और इसे नियम नहीं बनाना चाहिए.
रिपोर्ट में कहा गया था कि हर साल होने वाले चुनावी चक्र को ख़त्म कर देना चाहिए और देश को एक साथ चुनाव कराने की अपनी पुरानी व्यवस्था पर लौटना चाहिए.
ख़बर के मुताबिक़ आयोग ने स्वीकार किया कि हर पाँच साल में एक चुनाव कराने का लक्ष्य रातोरात हासिल नहीं किया जा सकता. ऐसा करने के लिए चुनाव कार्यक्रमों में कुछ बदलाव करने होंगे, जिसके लिए संवैधानिक संशोधन का रास्ता अपनाया जा सकता है.
आयोग का कहना था कि ऐसा करने के लिए एक या एक से ज़्यादा विधानसभाओं के कार्यकाल को छह महीने या उससे अधिक बढ़ाने या कम करने के लिए संविधान में संशोधन किया जा सकता है. अगर सभी राजनीतिक दल सहयोग करते हैं तो उनके हितों को नुक़सान पहुंचाए बिना इस काम को पूरा किया जा सकता है.
आयोग ने एक साथ चुनाव कराने के लिए एक और सुझाव दिया था. आयोग का कहना था कि विधानसभा के कार्यकाल को छोटा नहीं करने की स्थिति में ऐसा किया जा सकता है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवा लिए जाएं और विधानसभा के नतीजे तब तक रोक कर रखे जाएं, जब तक उसका कार्यकाल पूरा नहीं हो जाता.
आयोग ने इसके लिए ज़्यादा से ज़्यादा छह महीनों का समय सुझाया था, लेकिन यह रिपोर्ट भी बाद की सरकारों ने आगे नहीं बढ़ाई.
संसदीय स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट
अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में 2015 की संसदीय स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट का भी ज़िक्र किया है.
अपनी रिपोर्ट में संसदीय पैनल ने कहा था कि एक साथ चुनाव कराने से हर साल अलग-अलग चुनाव कराने पर होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी और चुनाव के समय लागू होने वाली आचार संहिता के चलते प्रभावित होने वाले विकास से जुड़े कामों पर पड़ने वाले गंभीर असर को रोका जा सकता है.
पैनल का कहना था कि चुनावों में काम करने वाले लोगों पर पड़ने वाले बोझ को भी ऐसा कर कम किया जा सकता है.
कांग्रेस सांसद एम सुदर्शन नचिअप्पन की अध्यक्षता में गठित समिति का कहना था कि अब तक गठित 16 लोकसभाओं में से सात समय से पहले ही भंग हो गई और इसके पीछे गठबंधन सरकारें थीं.
समिति ने सिफ़ारिश थी कि चुनाव दो चरणों में कराये जा सकते हैं. इसमें कहा गया कि कुछ विधानसभाओं के चुनाव आम चुनाव के ढाई साल बाद कराए जा सकते हैं और बची हुई विधानसभाओं के लोकसभा के कार्यकाल के ख़त्म होने पर एक साथ हो सकते हैं.
पैनल ने बताया कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 चुनाव आयोग को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल ख़त्म होने से छह महीने पहले चुनावों को अधिसूचित करने की अनुमति देता है.
उस समय समिति ने सुझाव दिया था कि विधानसभा चुनाव का प्रस्तावित पहला चरण नवंबर 2016 में आयोजित किया जा सकता है. इसमें उन सभी विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने की बात कही गई थी, जिनका कार्यकाल निर्धाधित चुनाव तारीख़ से पहले या बाद में एक साल के अंदर ख़त्म हो रहा हो.
इसी तरह दूसरे चरण का चुनाव 2019 में लोकसभा के आम चुनावों के साथ करवाए जाने की बात कही गई थी.
नीति आयोग का वर्किंग पेपर
रिपोर्ट में नीति आयोग के साल 2017 के वर्किंग पेपर का भी उल्लेख किया गया है, जिसमें एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव पर विचार-विमर्श किया गया था.
रिपोर्ट में एक साथ चुनावों से जुड़े मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों, वित्तीय और इससे जुड़े तर्कों का विश्लेषण किया गया. साथ ही ऐसा करने के लिए एक रूपरेखा भी तैयार की गई थी.
नीति आयोग के बिबेक देबरॉय और किशोर देसाई ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया कि 2009 के चुनावों में सरकारी ख़ज़ाने पर क़रीब एक हज़ार 115 करोड़ और 2014 के चुनावों में क़रीब तीन हज़ार 870 करोड़ का बोझ पड़ा था और अगर पार्टियों और उम्मीदवारों के खर्चे को मिला दिया जाए तो यह कुल खर्च कई गुना ज़्यादा हो जाता है.
रिपोर्ट में कहा गया था कि आचार संहिता लगने से विकास के कामों में रुकावट पैदा होती है और अलग अलग चुनाव होने से सरकारें और पार्टियां लगातार चुनावी कैंपेन में लगी रहती हैं.
कहा गया कि एक साथ चुनाव कराने से सरकारें उस चुनावी चक्र से बाहर आ पाएंगी और ज़्यादा बेहतर काम कर पाएंगी.
लॉ कमिशन की ड्राफ़्ट रिपोर्ट
अख़बार ने अपनी रिपोर्ट में 2018 की लॉ कमिशन की ड्राफ्ट रिपोर्ट का भी ज़िक्र किया है.
रिपोर्ट के मुताबिक़ क़ानूनी मामलों के विभाग ने अप्रैल 2018 में भारत के विधि आयोग से एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे की जांच करने के लिए कहा था.
30 अगस्त, 2018 को, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बीएस चौहान की अध्यक्षता में आयोग ने इसे लेकर एक ड्राफ्ट रिपोर्ट पेश की, जिसमें एक साथ चुनाव कराने का पक्ष लिया गया.
रिपोर्ट में कहा गया कि ऐसा करने से पहले सबसे ज़रूरी है कि राजनीतिक दलों और इससे जुड़े लोगों से विचार विमर्श किया जाए और उससे बाद ही कोई अंतिम फ़ैसला लिया जाए.
रिपोर्ट में कहा गया कि संविधान के मौजूदा ढांचे के भीतर एक साथ चुनाव नहीं कराए जा सकते हैं. ऐसा करने के लिए जरूरी संशोधन करने होंगे और इसके लिए कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों के समर्थन की ज़रूरत पड़ेगी.
आयोग ने कहा कि ऐसा करने के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियमों में भी संशोधन करना होगा
ड्राफ्ट रिपोर्ट में तीन विकल्प दिए गए हैं. पहले विकल्प के तौर पर आयोग ने कुछ राज्यों में चुनाव का समय आगे बढ़ाने की सिफ़ारिश की, ताकि 2019 में सभी राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराए जा सकें
दूसरे विकल्प के तौर पर कहा गया कि 13 राज्यों के चुनाव 2019 के लोकसभा चुनावों के साथ कराए जा सकते हैं और बाकि 16 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के चुनाव 2021 में एक साथ हो सकते हैं, इस तरह पाँच साल में दो बार अलग-अलग मौक़ों पर राज्यों के चुनाव कराए जा सकते हैं.
तीसरे विकल्प के रूप में कहा गया कि अगर कुछ विधानसभाओं के चुनाव किसी एक साल में अलग-अलग महीनों में हैं तो उन्हें किसी ख़ास एक महीने में कराया जा सकता है.
दिसंबर 2022 में, भारत के 22वें विधि आयोग ने अपनी 2018 ड्राफ्ट रिपोर्ट का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत में एक साथ चुनाव कराना ज़रूरी और देशहित में है. आयोग ने एक साथ चुनाव कराने को लेकर छह सवालों का एक सेट तैयार किया है और उसके लिए सुझाव मांगे हैं.
किन संशोधनों की जरूरत होगी?
देश में एक साथ चुनाव कराने को आने वाली दिक्कतों कों लेकर फ्रंटलाइन ने भी रिपोर्ट प्रकाशित की है.
ख़बर के मुताबिक़ लॉ कमिशन की सिफ़ारिशों के अनुसार एक साथ चुनाव कराने की कवायद के लिए कम से कम पांच संवैधानिक संशोधनों की ज़रूरत होगी.
इसमें अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 शामिल है. रिपोर्ट में कहा गया है कि कमिशन ने 2018 में जो ड्राफ्ट रिपोर्ट जारी की थी उसमें कहा गया था कि इन संसोधनों को अपनाने के लिए कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों का साथ जरूरी है.
लोकसभा के पूर्व महासचिव पी.डी.टी. आचार्य ने फ्रंटलाइन को बताया कि एक साथ चुनाव कराने की योजना अभी शुरू नहीं हुई है. उन्होंने कहा कि चुनावों का पैटर्न बदल गया है और एक साथ चुनाव कराने के लिए सभी मौजूदा विधानसभाओं को भंग करने की जरूरत होगी.