04-04-2023, 09:41 AM
विधानसभा चुनाव 2023 में स्पष्ट बहुमत हासिल करने के लिए कांग्रेस को न सिर्फ अपना वोट शेयर बढ़ाना होगा, बल्कि उन्हें जनता दल सेक्युलर (JDS) के भी कुछ सीटों पर कमज़ोर होने और कुछ सीटों पर मज़बूत होने की दुआ करनी होगी..
बेंगलुरू:
कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018 के दौरान तत्कालीन सिद्धारमैया-नीत कांग्रेस पार्टी सत्ता गंवा बैठी थी, लेकिन वोट शेयर के मामले में उसका प्रदर्शन 'ऐतिहासिक' रहा था, और लगभग चार दशक में यह पहला मौका था, जब सत्तासीन राजनैतिक दल का वोट शेयर बढ़ा था. वर्ष 2013 के 36.59 फीसदी की तुलना में वर्ष 2018 में कांग्रेस ने 38.14 फीसदी वोट हासिल किए थे. हालांकि जीती हुई सीटों के मामले में कांग्रेस को करारा नुकसान झेलना पड़ा था - 2013 में जीती 122 सीटों के मुकाबले 2018 में पार्टी ने सिर्फ 80 सीटें जीती थीं. इस नतीजे से साफ हो गया था कि इस सूबे में वोट शेयर के सीट के रूप में तब्दील होने का गणित कितना जटिल है, और इससे कांग्रेस के लिए बेहद विकट स्थिति पैदा हो गई.
विधानसभा चुनाव 2023 में स्पष्ट बहुमत हासिल करने के लिए कांग्रेस को न सिर्फ अपना वोट शेयर बढ़ाना होगा, बल्कि उन्हें जनता दल सेक्युलर (JDS) के भी कुछ सीटों पर कमज़ोर होने और कुछ सीटों पर मज़बूत होने की दुआ करनी होगी. इस जटिल-सी उम्मीद को साफ-साफ समझाना आसान नहीं है, लेकिन पिछले आंकड़े कतई ऐसा ही बताते हैं.
कर्नाटक में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP), कांग्रेस के साथ-साथ क्षेत्रीय पार्टी JDS के बीच मुकाबला त्रिकोणीय माना जा रहा है, लेकिन वोट शेयर के आंकड़ों का बारीक विश्लेषण बताता है कि 224-सदस्यीय विधानसभा की ज़्यादातर सीटों पर या तो BJP और कांग्रेस के बीच मुकाबला होगा, या कांग्रेस और JDS के बीच मुकाबला होगा. कुछ सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय भी हो सकता है, लेकिन ऐसी सीटें बेहद कम हैं, जहां मुकाबला BJP और JDS के बीच हो.
सीधी लड़ाई
पिछले विधानसभा चुनाव में, यानी अप्रैल, 2018 में जिन 222 सीटों पर (बेंगलुरू शहर की दो विधानसभा सीटों पर चुनाव स्थगित कर दिया गया था, और इन पर बाद में कांग्रेस-JDS गठबंधन ने चुनाव लड़ा था) मतदान करवाया गया था, उनमें से 110 पर कांग्रेस और BJP आमने-सामने थीं. इन सीटों पर कांग्रेस और BJP के प्रत्याशियों ने कुल मिलाकर 80 फीसदी से ज़्यादा वोट हासिल किए - और JDS काफी पीछे छूट गई थी.
कांग्रेस के लिए 'घातक' है JDS
लेकिन इन आंकड़ों का यह मतलब भी हरगिज़ नहीं है कि कर्नाटक के ओल्ड मैसूर क्षेत्र से बाहर की सीटों पर कांग्रेस के काम में JDS अड़ंगा नहीं डाल सकती. ज़्यादातर चुनावों की तरह इन सीटों पर भी नतीजे करीबी हो सकते हैं, और हार-जीत का अंतर कुछ हज़ार वोटों तक सिमट सकता है. सिर्फ 5 फीसदी वोट शेयर लेकर भी JDS कई सीटों पर कांग्रेस और BJP प्रत्याशियों की किस्मत का फ़ैसला कर सकती है. सो, JDS समूचे सूबे में सरकार बनाने के लिए ही नहीं, कई सीटों पर 'किंगमेकर' है.
जिन सीटों पर सीधा मुकाबला कांग्रेस और BJP के बीच होता रहा है, उन पर वर्ष 2008 के बाद से अब तक के सभी चुनाव परिणामों के विश्लेषण से पता चलता है कि 61 सीटें ऐसी हैं, जिन पर JDS को पराजित प्रत्याशी की हार के अंतर से ज़्यादा वोट हासिल हुए. इन सीटों पर JDS को कुल वोटों के 1 से 14 फीसदी के बीच वोट हासिल हुए. इनमें से ज़्यादातर सीटें उत्तरी और मध्य कर्नाटक की हैं, जहां JDS का हाज़िरी बेहद कम है.
आंकड़े साफ-साफ दिखाते हैं कि कांग्रेस के मुकाबले BJP ने कम अंतर से ज़्यादा सीटें गंवाई हैं, लेकिन राजनैतिक अनुभव दिखा रहा है कि JDS के उम्मीदवार की मौजूदगी से BJP को कांग्रेस की तुलना में ज़्यादा फायदा होता है. इसका अर्थ यह हुआ कि BJP कम अंतर से इसलिए नहीं हार रही है, क्योंकि उसके वोट कटते हैं, बल्कि कांग्रेस की जीत का अंतर घट जाता है, क्योंकि JDS उनके वोट कब्ज़ा लेती है.
स्थानीय नेता के नाम पर नहीं. सो, ज़्यादातर मामलों में JDS में शामिल होकर उनकी टिकट पर चुनाव लड़ने वाले असंतुष्ट नेता या स्थानीय नेता कांग्रेस के ही वोट काटते हैं, जो धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों के भी हो सकते हैं, और हाशिये पर पहुंच चुकी कुछ विशेष जातियों के भी.
मध्य कर्नाटक की बादामी विधानसभा सीट इसका ज्वलंत उदाहरण है. वर्ष 2018 में इस सीट पर कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और BJP के प्रभावशाली नेता बी. श्रीरामुलु के बीच हाई-प्रोफाइल संघर्ष हुआ था, और सिद्धारमैया सिर्फ 1,696 वोटों से जीते थे. इस मुकाबले में हार-जीत के अलावा याद रखने लायक पहलू सिर्फ JDS की भूमिका थी. JDS ने मैदान में ऐसे नेता को उतारा था, जिसने चुनाव से कुछ माह पहले ही कांग्रेस छोड़ी थी. कांग्रेस के उस पूर्व नेता का क्षेत्र में कुछ दबदबा था और कुछ असंतुष्ट कार्यकर्ता भी उनके साथ थे. वह सज्जन विधानसभा सीट पर कुल 24,484 वोट पाने में कामयाब रहे थे,
और परिणामस्वरूप कांग्रेस की जीत का जो अंतर वर्ष 2013 में लगभग 15,000 था, वह घटकर सिर्फ 1,696 रह गया - सो, यह साफ-साफ कहा जा सकता है कि JDS यहां एक अहम वजह था.
दुश्मन नहीं, दोस्त...
कर्नाटक की राजनीति की जटिलताओं को शायद उस असमंजस से बेहतरीन तरीके से समझा जा सकता है, जिसका सामना कांग्रेस कर रही है. JDS उत्तरी और मध्य कर्नाटक में भले ही कांग्रेस के वोट काट सकती है, लेकिन दक्षिणी कर्नाटक में JDS की मौजूदगी से कांग्रेस को खासी मदद मिलती है. अगर इस क्षेत्र में JDS को नुकसान होता है, तो BJP को खासा फायदा पहुंचता है, क्योंकि वह ऐसे इलाके में मज़बूत आधार बना पाती है, जहां वह फिलहाल सबसे कमज़ोर है.
यह तथ्य कर्नाटक विधानसभा चुनाव के एक साल बाद हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों से भी ज़ाहिर है. समूचे सूबे में JDS का कुल वोट शेयर घटकर सिर्फ़ 10 फीसदी रह गया, और उनके वोट सिर्फ दक्षिणी कर्नाटक से ही आए.
बेंगलुरू:
कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018 के दौरान तत्कालीन सिद्धारमैया-नीत कांग्रेस पार्टी सत्ता गंवा बैठी थी, लेकिन वोट शेयर के मामले में उसका प्रदर्शन 'ऐतिहासिक' रहा था, और लगभग चार दशक में यह पहला मौका था, जब सत्तासीन राजनैतिक दल का वोट शेयर बढ़ा था. वर्ष 2013 के 36.59 फीसदी की तुलना में वर्ष 2018 में कांग्रेस ने 38.14 फीसदी वोट हासिल किए थे. हालांकि जीती हुई सीटों के मामले में कांग्रेस को करारा नुकसान झेलना पड़ा था - 2013 में जीती 122 सीटों के मुकाबले 2018 में पार्टी ने सिर्फ 80 सीटें जीती थीं. इस नतीजे से साफ हो गया था कि इस सूबे में वोट शेयर के सीट के रूप में तब्दील होने का गणित कितना जटिल है, और इससे कांग्रेस के लिए बेहद विकट स्थिति पैदा हो गई.
विधानसभा चुनाव 2023 में स्पष्ट बहुमत हासिल करने के लिए कांग्रेस को न सिर्फ अपना वोट शेयर बढ़ाना होगा, बल्कि उन्हें जनता दल सेक्युलर (JDS) के भी कुछ सीटों पर कमज़ोर होने और कुछ सीटों पर मज़बूत होने की दुआ करनी होगी. इस जटिल-सी उम्मीद को साफ-साफ समझाना आसान नहीं है, लेकिन पिछले आंकड़े कतई ऐसा ही बताते हैं.
कर्नाटक में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP), कांग्रेस के साथ-साथ क्षेत्रीय पार्टी JDS के बीच मुकाबला त्रिकोणीय माना जा रहा है, लेकिन वोट शेयर के आंकड़ों का बारीक विश्लेषण बताता है कि 224-सदस्यीय विधानसभा की ज़्यादातर सीटों पर या तो BJP और कांग्रेस के बीच मुकाबला होगा, या कांग्रेस और JDS के बीच मुकाबला होगा. कुछ सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय भी हो सकता है, लेकिन ऐसी सीटें बेहद कम हैं, जहां मुकाबला BJP और JDS के बीच हो.
सीधी लड़ाई
पिछले विधानसभा चुनाव में, यानी अप्रैल, 2018 में जिन 222 सीटों पर (बेंगलुरू शहर की दो विधानसभा सीटों पर चुनाव स्थगित कर दिया गया था, और इन पर बाद में कांग्रेस-JDS गठबंधन ने चुनाव लड़ा था) मतदान करवाया गया था, उनमें से 110 पर कांग्रेस और BJP आमने-सामने थीं. इन सीटों पर कांग्रेस और BJP के प्रत्याशियों ने कुल मिलाकर 80 फीसदी से ज़्यादा वोट हासिल किए - और JDS काफी पीछे छूट गई थी.
उत्तरी और तटीय कर्नाटक में JDS अहम राजनैतिक पार्टी नहीं है, और उनके पास ज़्यादातर वोट दक्षिणी कर्नाटक से ही आते हैं.
29 विधानसभा सीटों पर - विशेष रूप से BJP की कमज़ोर कड़ी माने जाने वाले दक्षिणी कर्नाटक के ओल्ड मैसूर क्षेत्र में - चुनावी जंग कांग्रेस और JDS के बीच थी. सिर्फ 9 सीटें ऐसी थीं, जहां मुकाबला BJP और JDS के बीच था, और कांग्रेस चुनावी मैदान में सिर्फ मौजूद थी.कांग्रेस के लिए 'घातक' है JDS
लेकिन इन आंकड़ों का यह मतलब भी हरगिज़ नहीं है कि कर्नाटक के ओल्ड मैसूर क्षेत्र से बाहर की सीटों पर कांग्रेस के काम में JDS अड़ंगा नहीं डाल सकती. ज़्यादातर चुनावों की तरह इन सीटों पर भी नतीजे करीबी हो सकते हैं, और हार-जीत का अंतर कुछ हज़ार वोटों तक सिमट सकता है. सिर्फ 5 फीसदी वोट शेयर लेकर भी JDS कई सीटों पर कांग्रेस और BJP प्रत्याशियों की किस्मत का फ़ैसला कर सकती है. सो, JDS समूचे सूबे में सरकार बनाने के लिए ही नहीं, कई सीटों पर 'किंगमेकर' है.
जिन सीटों पर सीधा मुकाबला कांग्रेस और BJP के बीच होता रहा है, उन पर वर्ष 2008 के बाद से अब तक के सभी चुनाव परिणामों के विश्लेषण से पता चलता है कि 61 सीटें ऐसी हैं, जिन पर JDS को पराजित प्रत्याशी की हार के अंतर से ज़्यादा वोट हासिल हुए. इन सीटों पर JDS को कुल वोटों के 1 से 14 फीसदी के बीच वोट हासिल हुए. इनमें से ज़्यादातर सीटें उत्तरी और मध्य कर्नाटक की हैं, जहां JDS का हाज़िरी बेहद कम है.
आंकड़े साफ-साफ दिखाते हैं कि कांग्रेस के मुकाबले BJP ने कम अंतर से ज़्यादा सीटें गंवाई हैं, लेकिन राजनैतिक अनुभव दिखा रहा है कि JDS के उम्मीदवार की मौजूदगी से BJP को कांग्रेस की तुलना में ज़्यादा फायदा होता है. इसका अर्थ यह हुआ कि BJP कम अंतर से इसलिए नहीं हार रही है, क्योंकि उसके वोट कटते हैं, बल्कि कांग्रेस की जीत का अंतर घट जाता है, क्योंकि JDS उनके वोट कब्ज़ा लेती है.
इसकी वजह इन विधानसभा सीटों पर, जहां JDS का मज़बूत आधार नहीं है, प्रत्याशी चुनने की JDS की रणनीति है. इन सीटों पर JDS इंतज़ार करती है कि BJP और कांग्रेस अपने प्रत्याशी घोषित कर दें. आमतौर पर किसी भी पार्टी द्वारा प्रत्याशी की घोषणा किसी न किसी तरह स्थानीय स्तर पर असंतोष की वजह बनती ही है, और आमतौर पर अंत में प्रत्याशी की घोषणा करने वाली JDS असंतुष्ट हुए कांग्रेस या BJP नेताओं को टिकट देती है.
अब चूंकि BJP कैडर-आधारित पार्टी है, इसलिए असंतुष्ट नेताओं के उन्हें छोड़कर चले जाने की आशंका भी कम रहती है. और वैसे भी, BJP समर्थक मतदाता आमतौर पर विचारधारा के लिए वोट करता है,स्थानीय नेता के नाम पर नहीं. सो, ज़्यादातर मामलों में JDS में शामिल होकर उनकी टिकट पर चुनाव लड़ने वाले असंतुष्ट नेता या स्थानीय नेता कांग्रेस के ही वोट काटते हैं, जो धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों के भी हो सकते हैं, और हाशिये पर पहुंच चुकी कुछ विशेष जातियों के भी.
मध्य कर्नाटक की बादामी विधानसभा सीट इसका ज्वलंत उदाहरण है. वर्ष 2018 में इस सीट पर कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और BJP के प्रभावशाली नेता बी. श्रीरामुलु के बीच हाई-प्रोफाइल संघर्ष हुआ था, और सिद्धारमैया सिर्फ 1,696 वोटों से जीते थे. इस मुकाबले में हार-जीत के अलावा याद रखने लायक पहलू सिर्फ JDS की भूमिका थी. JDS ने मैदान में ऐसे नेता को उतारा था, जिसने चुनाव से कुछ माह पहले ही कांग्रेस छोड़ी थी. कांग्रेस के उस पूर्व नेता का क्षेत्र में कुछ दबदबा था और कुछ असंतुष्ट कार्यकर्ता भी उनके साथ थे. वह सज्जन विधानसभा सीट पर कुल 24,484 वोट पाने में कामयाब रहे थे,
और परिणामस्वरूप कांग्रेस की जीत का जो अंतर वर्ष 2013 में लगभग 15,000 था, वह घटकर सिर्फ 1,696 रह गया - सो, यह साफ-साफ कहा जा सकता है कि JDS यहां एक अहम वजह था.
एक और उदाहरण धारवाड़ की कुंगोल विधानसभा सीट है, जहां वर्ष 2018 में BJP सिर्फ 634 वोटों के अंतर से हार गई थी. वर्ष 2013 के चुनाव में इस सीट पर कांग्रेस की जीत का अंतर 20,000 वोट से ज़्यादा था - मोटे तौर पर उसकी वजह एन्टी-इन्कम्बेन्सी और BJP में टूट थी. इसके बाद कांग्रेस, BJP और JDS ने यहां से लिंगायत उम्मीदवारों को टिकट दिया, ताकि इस बड़े समुदाय का समर्थन पा सकें.
वर्ष 2018 में कांग्रेस और BJP ने लिंगायत उम्मीदवारों को ही उतारा, लेकिन JDS ने मुस्लिम समुदाय के एक नेता को टिकट दे दिया. JDS को कुल मिलाकर 6,280 वोट मिले, जो संभवतः BJP के नहीं, कांग्रेस के वोट बैंक से आए. अगर JDS ने इस बार यहां इस उम्मीदवार को नहीं उतारा होता, तो कांग्रेस की जीत का अंतर इससे बड़ा हो सकता था.दुश्मन नहीं, दोस्त...
कर्नाटक की राजनीति की जटिलताओं को शायद उस असमंजस से बेहतरीन तरीके से समझा जा सकता है, जिसका सामना कांग्रेस कर रही है. JDS उत्तरी और मध्य कर्नाटक में भले ही कांग्रेस के वोट काट सकती है, लेकिन दक्षिणी कर्नाटक में JDS की मौजूदगी से कांग्रेस को खासी मदद मिलती है. अगर इस क्षेत्र में JDS को नुकसान होता है, तो BJP को खासा फायदा पहुंचता है, क्योंकि वह ऐसे इलाके में मज़बूत आधार बना पाती है, जहां वह फिलहाल सबसे कमज़ोर है.
यह तथ्य कर्नाटक विधानसभा चुनाव के एक साल बाद हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों से भी ज़ाहिर है. समूचे सूबे में JDS का कुल वोट शेयर घटकर सिर्फ़ 10 फीसदी रह गया, और उनके वोट सिर्फ दक्षिणी कर्नाटक से ही आए.