09-08-2023, 12:30 PM
सितंबर 2013. मुजफ्फरनगर। सुबह का वक्त था। मैं रसोई में थी। घरवालों के लिए खाना बना रही थी। मेरे बड़े बेटे की तबीयत खराब थी। इसलिए उसे लेकर मेरे पति शहर में डॉक्टर के पास चले गए। उनको गए हुए करीब 1 घंटा बीता था। अचानक बाहर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। सैकड़ों की भीड़। सबके हाथ में लाठी-डंडे और तलवार। वो लोग बाहर लाठियों से सबको पीटने लगे।
घर में बस मैं, मेरा 3 महीने का बेटा और मेरे पति के चाचा-चाची थे। वो लोग चुन-चुनकर पुरुषों को मार रहे थे, औरतों के साथ बदतमीजी कर रहे थे। हम छत पर बैठकर सब देख रहे थे। जब उन्होंने सामने आने वाले लोगों को मार डाला तो घरों में आग लगाने लग गए। वो हमारे घर की तरफ बढ़े तो मैं भी अपने बेटे को गोद में उठाकर भागी।
गन्ने के खेतों से होते हुए 3 किलोमीटर दूर मैं एक स्कूल के पीछे जाकर छुप गई। वो लोग आस-पास हमें ढूंढ रहे थे। मैं चुप-चाप अपने बच्चे का मुंह दबाए वहां छुपी रही। लेकिन उनमें से तीन लोगों ने हमें ढूंढ लिया। उन्होंने मेरे हाथ से बच्चा छीनकर उसे जमीन पर लेटा दिया। उसकी गर्दन पर चाकू रखी और बोले, “हमें जो करना है करने दो वरना तुम्हारे बच्चे को मार डालेंगे।” उन तीनों ने बारी-बारी मेरे साथ रेप किया। उसी बदहाल हालत में छोड़कर भाग गए। यह शब्द हैं उन मुस्लिम महिला के जिनका मुजफ्फरनगर दंगों के वक्त रेप हुआ। अब 10 साल बाद उनके आरोपियों को सजा हुई है।
क्या है उन महिला की पूरी कहानी? इन 10 सालों में उनके साथ क्या-क्या हुआ? यह सब जानने के लिए हमने पीड़िता से मुलाकात की। चलिए पीड़िता की पूरी कहानी पन्ने दर पन्ने जानते हैं…
वो हमें घर के अंदर जलाने जा रहे थे, इसलिए हम भाग आए
8 सितंबर 2013. शाम के करीब 7 बजे होंगे। गांव के मंदिर में लाउड स्पीकर से ऐलान हुआ। कहा गया कि मंदौड़ पंचायत में गए जाटों को मुसलमानों ने जौली में मार दिया है। सब लोग इकठ्ठा हो जाओ और मुसलमानों को मारो। पीड़िता का पूरा परिवार घबराया हुआ था। तभी कुछ जाट उनके घर पहुंचे। उन्होंने कहा कि घबराने की कोई बात नहीं है। आप लोगों को कुछ नहीं होगा। हम आपकी रक्षा करेंगे।
पीड़िता बताती हैं कि उन लोगों ने रात भर पहरा दिया। लेकिन तब तक कोई दंगा नहीं हुआ था। हमें लगा सब ठीक है। वो जाट भी अपने-अपने घर चले गए। मेरे बड़े बेटे की तबीयत खराब थी। मैंने अपने पति को नाश्ता दिया। उसके बाद वो बड़े बेटे को लेकर दवा लेने शामली चले गए।
इधर मैं दोबारा रसोई में अपने काम में जुट गई। इतने में छोटा बच्चा रोने लगा। मैं उसके पास आई ही थी कि बाहर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। झांककर देखा तो कई लोग डंडा और तलवारें लिए मुसलमानों को दौड़ा रहे थे। ये देख हम सब ऊपर जाकर छुप गए।
ये दंगाइयों की भीड़ थी। पिछली रात जो ऐलान हुआ वो अब सच साबित हो रहा था। जो लोग रात में हमारे घर पहरा दे रहे थे अब वो भी उसी भीड़ का हिस्सा बन चुके थे। क्योंकि अगर हमारा साथ देते तो वो भी मारे जाते। दंगाई एक-एक करके मुसलमानों को मारने लगे। कुछ मारे गए। कुछ खून से लथपथ अपनी जान बचने के लिए जंगल के रास्ते भागने लगे।
भागते वक्त गन्ने के पैने पत्ते मेरे और बच्चे के शरीर को काट रहे थे
करीब 20 मिनट बीते। हम अभी भी घर में ही छुपे हुए थे। हमें लगा बाहर निकले तो मारे जाएंगे। पर दंगाइयों ने चुन-चुनकर हमारे घर जलाने शुरू कर दिए। मजबूरी में सबको भागना पड़ा। मैं जब से शादी करके आई थी घर के अंदर ही रहती। कहीं जाना होता तो पति के साथ जाती। मुझे गांव के किसी रास्ते की जानकारी नहीं थी। लेकिन उस वक्त भागने के अलावा कोई दूसरा ऑप्शन नहीं था।
मैंने अपने छोटे बेटे को गोद में उठाया और खेतों के अंदर से भागने लगी। चाचा-चाची भी साथ थे। भागते वक्त गन्ने के पैने पत्ते मेरे शरीर को काट रहे थे। मैंने अपने बच्चे को कपड़े से ढक लिया लेकिन फिर भी उसके शरीर पर कटने के निशान पड़ गए।
मैं भागते हुए रास्ते में रुकी तो देखा आस-पास चाचा-चाची नहीं थे। मैं रास्ता भटक गई। करीब तीन किलोमीटर भागने के बाद मैं एक स्कूल तक पहुंची। उसी की पीछे की दीवार पर अपने बच्चे को लेकर छुप गई। बच्चा रोता तो उसका मुंह दबा देती ताकि हमारे यहां छिपे होने का किसी को पता ना चले।
तीन लोगों ने कपड़े फाड़े, बारी-बारी से मेरा बलात्कार किया
मैं स्कूल के पीछे छुपी हुई थी। गांव से बाहर जाने की सड़क कुछ दूर पर ही थी लेकिन दीवार के पीछे से वो मुझे दिखाई नहीं दे रही थी। किसी तरह मैं वहां तक पहुंच जाती तो बच जाती। मैं आगे जाने के लिए उठी ही थी कि गांव के तीन आदमी कुलदीप, सिकंदर और महेशवीर वहां पहुंच गए। उन्हें देख कर डर लगा पर मन में ये भी था कि वो मेरे पड़ोसी हैं। हमें जानते हैं इसलिए शायद नुकसान ना पहुंचाएं।
…लेकिन मैं गलत थी। वो करीब आए और मेरे बच्चे को छीनकर जमीन पर लेटा दिया। उसके बाद मेरे साथ जोर-जबरदस्ती करने लगे। मैं चिल्लाई तो उन्होंने मेरे बेटे की गर्दन पर चाकू रख दी। वो बोले कि हम जो कर रहे हैं चुपचाप हमें करने दो। अगर कुछ बोली तो तुम्हारे बच्चे को मार डालेंगे।
ये सुनकर मैं चुप हो गई। उन्होंने मेरे कपड़े फाड़कर जमीन पर फेंक दिए। तीनों ने बारी-बारी मेरा बलात्कार किया। उसके बाद मुझे वहां छोड़कर वो चले गए। मैं बेसुध खेत में पड़ी थी। पास में मेरा बेटा था। किसी तरह उठी तो मैंने कपड़े के चीथड़ों को पहना। अपने बच्चे को उठाया और किसी तरह खुद को संभालते हुए आगे बढ़ी।
ऑटो वाले की मदद से रिश्तेदारों के पास पहुंच गई
कुछ दूर बढ़ने के बाद मुझे रोड नजर आई। सामने से एक ऑटो आ रहा था। मैंने उसे रोक तो लिया लेकिन समझ नहीं आ रहा था इसपर भरोसा करूं या नहीं। इतने में ऑटो ड्राइवर बोला कि दीदी चलो मैं छोड़ दूंगा। मैं भी दंगे से भागकर आ रहा हूं तो डरने की बात नहीं है। मैंने उसपर भरोसा किया और बच्चे को लेकर ऑटो में बैठ गई।
ऑटो वाले ने मुझे ले जाकर जौला गांव छोड़ दिया। वहां पहुंचकर मुझे कई लोग दिखे जो गांव से भागे थे। यहीं मुझे मेरे चाचा-चाची भी मिले। उन्हें देखते ही मैं चाची से लिपटकर रोने लगी। लेकिन उनके पूछने पर भी बलात्कार की बात नहीं बता पाई। मुझे डर था कि ये बात सामने आई तो दंगा करने वाले मेरे परिवार को नुकसान पहुंचाएंगे। साथ ही ये सब जानकार मेरे पति भी मुझे छोड़ देंगे। यही सब सोचकर मैं चुप रही।
दंगों के 7 दिन बाद पति से मिली तो रेप की बात बता दी
जौला गांव में दंगा पीड़ितों के लिए शिविर लगे थे। मैं भी अपने बच्चे को लेकर वहीं रुकी रही। दंगे की जानकारी होते ही मेरे घरवालों ने पति को फोन किया और उन्हें अपने पास बुला लिया। मेरे पति और बड़ा बेटा डॉक्टर के पास से सीधे मेरे मायके चले गए। मैं वहां मौजूद लोगों की मदद से उनसे फोन पर बात कर लेती थी। उन्होंने मेरे पास आने के लिए कहा लेकिन माहौल देखते हुए मैंने मना कर दिया।
सात दिन बीत गए। आज मैं अपने पति से मिलने वाली थी। मैंने सोचा था कि बलात्कार की बात मैं छिपा लूंगी। लेकिन मैं चुप नहीं रह पाई। मैं जैसे ही अपने पति से मिली, उन्होंने मुझे गले लगा लिया। उस वक्त तो मैं कुछ नहीं बोली। लेकिन वो बार-बार मेरा हाल पूछने लगे तो मैंने उन्हें गैंगरेप की पूरी बात बता दी। कुछ देर वो चुप रहे फिर उन्होंने मुझे संभाला और ये बात छुपाने को कहा।
कुछ दिन बीते। हमें पता चला कि गांव की कुछ और महिलाएं भी हैं जिनके साथ दंगों के वक्त बलात्कार हुआ। वो सभी उन लोगों के खिलाफ आवाज उठा रही हैं। पीड़िता के पति बताते हैं कि उन महिलाओं को देख मेरी पत्नी भी आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज करना चाहती थी लेकिन मैं डरा हुआ था। मुझे डर था कि आरोपी उसे या बच्चों को नुकसान ना पहुंचाएं। पर मेरी पत्नी को इंसाफ चाहिए था। उसने ये लड़ाई लड़ने की हिम्मत की तो मैंने भी उसका साथ देने का तय किया।
सात-आठ महीने लग गए तब FIR दर्ज हुई
पीड़िता बताती हैं कि उन्हें घर से निकलने में डर लगता था। इसलिए अक्टूबर 2013 में उन्होंने फुगना पुलिस स्टेशन में डाक के जरिए अपनी शिकायत भेजी। दो महीने बीत गए लेकिन उस खत पर ना कोई कार्रवाई हुई ना कोई पूछताछ करने आया। उसके बाद मैंने और मेरे पति से कई महीनों तक एक थाने से दूसरे थाने चक्कर लगाए। इधर-उधर भटके तब जाकर हमारी FIR दर्ज हुई।
वहीं दूसरी तरफ हमारा घर चला गया था। करीब 2 साल तो हम अपने वकील की मदद से दिल्ली में छुपे रहे। उसके बाद हम शामली आ गए। यहां ना घर था ना कोई कामकाज। सब कुछ नए सिरे से शुरू करना था। सरकार की तरफ से हमें 5 लाख रुपए का मुआवजा मिला था। उसी की मदद से हमने जमीन ली और 2 कमरों का घर बनवाया। बच्चे का स्कूल में एडमीशन करवाया। मेरे पति सिलाई का काम शुरू कर दिया। कुछ थोड़े बहुत पैसे आ जाते थे।
आरोपी मेरे बच्चों को जान से मारने की धमकी देते थे
जिंदगी पटरी पर आने लगी थी कि उन आरोपियों को पता चल गया हम कहां रहते हैं। वो कभी हमारे सामने तो नहीं आए लेकिन रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों को धमकी देते थे। केस वापस लेने को कहते। जब हम पीछे नहीं हटे तो उन्होंने मेरे बच्चों को नुकसान पहुंचाने की धमकी दी।
हम डर गए कि कहीं वो हमारे बच्चों को कुछ ना कर दें। लेकिन हमारी वकील वृंदा ग्रोवर ने पहले ही कहा था कि वो हमें तोड़ने की कोशिश करेंगे लेकिन पीछे नहीं हटना है। जैसे-तैसे डर डरकर हमने ये 10 साल काटे। आखिरकार हमें इंसाफ मिला। मार्च 2023 में कोर्ट के सभी आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। हालांकि इस दौरान एक आरोपी कुलदीप की मौत हो चुकी थी तो उसके खिलाफ मुकदमा रद्द हो गया।
…आखिर में पीड़िता बताती हैं कि मुझे लगता है कि मैं पढ़ी-लिखी होती तो मेरे केस का फैसला इतने दिन ना टलता। इसलिए अब मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। अपने बच्चों की किताबें पढ़ती हूं और फिर उन्हें ही पढ़ाती हूं।
मुजफ्फरनगर का कवाल गांव। सचिन पूजा का सामान लेने बाजार गया। रास्ते में उसे छोटा भाई गौरव स्कूल से आते हुए दिखा। सचिन और गौरव साथ में घर जाने लगे। घर से करीब 1 किलोमीटर पहले गौरव की साइकिल शाहनवाज की बाइक से टकरा गई। शाहनवाज को गुस्सा आया। इधर सचिन और गौरव भी पीछे नहीं हटे। गाली-गलौज हुई। आस-पास के लोग इकट्ठा हुए तो मारपीट शुरू हो गई।
भीड़ से बचकर शाहनवाज वहां से निकला। पास में सैलून था। वो वहां से छूरा लेकर आया। सचिन ने शाहनवाज का हाथ मोड़ा और छूरा छीनकर उसे ही मार दिया। शाहनवाज गिरकर तड़पने लगा। आस-पास के लोगों ने खून देखा तो सचिन-गौरव को पीटने लगे। दोनों की मौके पर ही हत्या कर दी। सचिन और गौरव की खून से लथपथ लाश सड़क पर पड़ी थी। शरीर पर एक कपड़ा तक नहीं बचा था। कुछ देर बाद… शाहनवाज की भी हालत बिगड़ने लगी। उसने भी दम तोड़ दिया।
मुजफ्फरनगर दंगा पार्ट 2: तलवार उठाई...मेरे पति का गला काट दिया
सितंबर 2013. शामली का लिसाढ़ गांव। आस-पास के इलाकों में 62 और इस गांव में 13 लोगों की मौत हुई। सैकड़ों लोग घायल हुए। लेकिन 10 साल पहले खून, चीथड़ों और चीखों से दहला हुआ शहर अब धीरे-धीरे नॉर्मल होने लगा है। रौनकों में डूबने लगा है। एक रोज खून से सनी सड़कों पर अब गाड़ियां फर्राटे भरने लगी हैं। पर हादसे में अपनों को खो चुके परिवार अब भी साल 2013 के सितंबर में अटके हैं।
गांव में 7 सितंबर की शाम तक सब ठीक था। तभी कुछ लोग पंचायत से लौटे। हाथ में लाठी-डंडे और तलवारें थीं। उन्होंने मुसलमान घरों को चुन-चुनकर आग लगा दी। जो भाग सकते थे, वह घर छोड़कर भाग गए। लेकिन 13 लोग नहीं भाग पाए, वे सभी मारे गए। 11 लोगों की लाशें आज 10 साल बीत जाने के बाद भी नहीं मिलीं। जो 2 लाशें नहर में मिली, वे गांव से 30 किलोमीटर दूर मिलीं।
इस घटना के बाद कोई भी मुस्लिम परिवार वापस लिसाढ़ नहीं गया। सभी विस्थापित हो गए। इन सबका कोई कसूर नहीं था। फिर भी मुजफ्फरनगर दंगे की आग में झुलस गए। दंगे को आज 10 साल हो गए।
घर में बस मैं, मेरा 3 महीने का बेटा और मेरे पति के चाचा-चाची थे। वो लोग चुन-चुनकर पुरुषों को मार रहे थे, औरतों के साथ बदतमीजी कर रहे थे। हम छत पर बैठकर सब देख रहे थे। जब उन्होंने सामने आने वाले लोगों को मार डाला तो घरों में आग लगाने लग गए। वो हमारे घर की तरफ बढ़े तो मैं भी अपने बेटे को गोद में उठाकर भागी।
गन्ने के खेतों से होते हुए 3 किलोमीटर दूर मैं एक स्कूल के पीछे जाकर छुप गई। वो लोग आस-पास हमें ढूंढ रहे थे। मैं चुप-चाप अपने बच्चे का मुंह दबाए वहां छुपी रही। लेकिन उनमें से तीन लोगों ने हमें ढूंढ लिया। उन्होंने मेरे हाथ से बच्चा छीनकर उसे जमीन पर लेटा दिया। उसकी गर्दन पर चाकू रखी और बोले, “हमें जो करना है करने दो वरना तुम्हारे बच्चे को मार डालेंगे।” उन तीनों ने बारी-बारी मेरे साथ रेप किया। उसी बदहाल हालत में छोड़कर भाग गए। यह शब्द हैं उन मुस्लिम महिला के जिनका मुजफ्फरनगर दंगों के वक्त रेप हुआ। अब 10 साल बाद उनके आरोपियों को सजा हुई है।
क्या है उन महिला की पूरी कहानी? इन 10 सालों में उनके साथ क्या-क्या हुआ? यह सब जानने के लिए हमने पीड़िता से मुलाकात की। चलिए पीड़िता की पूरी कहानी पन्ने दर पन्ने जानते हैं…
वो हमें घर के अंदर जलाने जा रहे थे, इसलिए हम भाग आए
8 सितंबर 2013. शाम के करीब 7 बजे होंगे। गांव के मंदिर में लाउड स्पीकर से ऐलान हुआ। कहा गया कि मंदौड़ पंचायत में गए जाटों को मुसलमानों ने जौली में मार दिया है। सब लोग इकठ्ठा हो जाओ और मुसलमानों को मारो। पीड़िता का पूरा परिवार घबराया हुआ था। तभी कुछ जाट उनके घर पहुंचे। उन्होंने कहा कि घबराने की कोई बात नहीं है। आप लोगों को कुछ नहीं होगा। हम आपकी रक्षा करेंगे।
पीड़िता बताती हैं कि उन लोगों ने रात भर पहरा दिया। लेकिन तब तक कोई दंगा नहीं हुआ था। हमें लगा सब ठीक है। वो जाट भी अपने-अपने घर चले गए। मेरे बड़े बेटे की तबीयत खराब थी। मैंने अपने पति को नाश्ता दिया। उसके बाद वो बड़े बेटे को लेकर दवा लेने शामली चले गए।
इधर मैं दोबारा रसोई में अपने काम में जुट गई। इतने में छोटा बच्चा रोने लगा। मैं उसके पास आई ही थी कि बाहर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। झांककर देखा तो कई लोग डंडा और तलवारें लिए मुसलमानों को दौड़ा रहे थे। ये देख हम सब ऊपर जाकर छुप गए।
ये दंगाइयों की भीड़ थी। पिछली रात जो ऐलान हुआ वो अब सच साबित हो रहा था। जो लोग रात में हमारे घर पहरा दे रहे थे अब वो भी उसी भीड़ का हिस्सा बन चुके थे। क्योंकि अगर हमारा साथ देते तो वो भी मारे जाते। दंगाई एक-एक करके मुसलमानों को मारने लगे। कुछ मारे गए। कुछ खून से लथपथ अपनी जान बचने के लिए जंगल के रास्ते भागने लगे।
भागते वक्त गन्ने के पैने पत्ते मेरे और बच्चे के शरीर को काट रहे थे
करीब 20 मिनट बीते। हम अभी भी घर में ही छुपे हुए थे। हमें लगा बाहर निकले तो मारे जाएंगे। पर दंगाइयों ने चुन-चुनकर हमारे घर जलाने शुरू कर दिए। मजबूरी में सबको भागना पड़ा। मैं जब से शादी करके आई थी घर के अंदर ही रहती। कहीं जाना होता तो पति के साथ जाती। मुझे गांव के किसी रास्ते की जानकारी नहीं थी। लेकिन उस वक्त भागने के अलावा कोई दूसरा ऑप्शन नहीं था।
मैंने अपने छोटे बेटे को गोद में उठाया और खेतों के अंदर से भागने लगी। चाचा-चाची भी साथ थे। भागते वक्त गन्ने के पैने पत्ते मेरे शरीर को काट रहे थे। मैंने अपने बच्चे को कपड़े से ढक लिया लेकिन फिर भी उसके शरीर पर कटने के निशान पड़ गए।
मैं भागते हुए रास्ते में रुकी तो देखा आस-पास चाचा-चाची नहीं थे। मैं रास्ता भटक गई। करीब तीन किलोमीटर भागने के बाद मैं एक स्कूल तक पहुंची। उसी की पीछे की दीवार पर अपने बच्चे को लेकर छुप गई। बच्चा रोता तो उसका मुंह दबा देती ताकि हमारे यहां छिपे होने का किसी को पता ना चले।
तीन लोगों ने कपड़े फाड़े, बारी-बारी से मेरा बलात्कार किया
मैं स्कूल के पीछे छुपी हुई थी। गांव से बाहर जाने की सड़क कुछ दूर पर ही थी लेकिन दीवार के पीछे से वो मुझे दिखाई नहीं दे रही थी। किसी तरह मैं वहां तक पहुंच जाती तो बच जाती। मैं आगे जाने के लिए उठी ही थी कि गांव के तीन आदमी कुलदीप, सिकंदर और महेशवीर वहां पहुंच गए। उन्हें देख कर डर लगा पर मन में ये भी था कि वो मेरे पड़ोसी हैं। हमें जानते हैं इसलिए शायद नुकसान ना पहुंचाएं।
…लेकिन मैं गलत थी। वो करीब आए और मेरे बच्चे को छीनकर जमीन पर लेटा दिया। उसके बाद मेरे साथ जोर-जबरदस्ती करने लगे। मैं चिल्लाई तो उन्होंने मेरे बेटे की गर्दन पर चाकू रख दी। वो बोले कि हम जो कर रहे हैं चुपचाप हमें करने दो। अगर कुछ बोली तो तुम्हारे बच्चे को मार डालेंगे।
ये सुनकर मैं चुप हो गई। उन्होंने मेरे कपड़े फाड़कर जमीन पर फेंक दिए। तीनों ने बारी-बारी मेरा बलात्कार किया। उसके बाद मुझे वहां छोड़कर वो चले गए। मैं बेसुध खेत में पड़ी थी। पास में मेरा बेटा था। किसी तरह उठी तो मैंने कपड़े के चीथड़ों को पहना। अपने बच्चे को उठाया और किसी तरह खुद को संभालते हुए आगे बढ़ी।
ऑटो वाले की मदद से रिश्तेदारों के पास पहुंच गई
कुछ दूर बढ़ने के बाद मुझे रोड नजर आई। सामने से एक ऑटो आ रहा था। मैंने उसे रोक तो लिया लेकिन समझ नहीं आ रहा था इसपर भरोसा करूं या नहीं। इतने में ऑटो ड्राइवर बोला कि दीदी चलो मैं छोड़ दूंगा। मैं भी दंगे से भागकर आ रहा हूं तो डरने की बात नहीं है। मैंने उसपर भरोसा किया और बच्चे को लेकर ऑटो में बैठ गई।
ऑटो वाले ने मुझे ले जाकर जौला गांव छोड़ दिया। वहां पहुंचकर मुझे कई लोग दिखे जो गांव से भागे थे। यहीं मुझे मेरे चाचा-चाची भी मिले। उन्हें देखते ही मैं चाची से लिपटकर रोने लगी। लेकिन उनके पूछने पर भी बलात्कार की बात नहीं बता पाई। मुझे डर था कि ये बात सामने आई तो दंगा करने वाले मेरे परिवार को नुकसान पहुंचाएंगे। साथ ही ये सब जानकार मेरे पति भी मुझे छोड़ देंगे। यही सब सोचकर मैं चुप रही।
दंगों के 7 दिन बाद पति से मिली तो रेप की बात बता दी
जौला गांव में दंगा पीड़ितों के लिए शिविर लगे थे। मैं भी अपने बच्चे को लेकर वहीं रुकी रही। दंगे की जानकारी होते ही मेरे घरवालों ने पति को फोन किया और उन्हें अपने पास बुला लिया। मेरे पति और बड़ा बेटा डॉक्टर के पास से सीधे मेरे मायके चले गए। मैं वहां मौजूद लोगों की मदद से उनसे फोन पर बात कर लेती थी। उन्होंने मेरे पास आने के लिए कहा लेकिन माहौल देखते हुए मैंने मना कर दिया।
सात दिन बीत गए। आज मैं अपने पति से मिलने वाली थी। मैंने सोचा था कि बलात्कार की बात मैं छिपा लूंगी। लेकिन मैं चुप नहीं रह पाई। मैं जैसे ही अपने पति से मिली, उन्होंने मुझे गले लगा लिया। उस वक्त तो मैं कुछ नहीं बोली। लेकिन वो बार-बार मेरा हाल पूछने लगे तो मैंने उन्हें गैंगरेप की पूरी बात बता दी। कुछ देर वो चुप रहे फिर उन्होंने मुझे संभाला और ये बात छुपाने को कहा।
कुछ दिन बीते। हमें पता चला कि गांव की कुछ और महिलाएं भी हैं जिनके साथ दंगों के वक्त बलात्कार हुआ। वो सभी उन लोगों के खिलाफ आवाज उठा रही हैं। पीड़िता के पति बताते हैं कि उन महिलाओं को देख मेरी पत्नी भी आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज करना चाहती थी लेकिन मैं डरा हुआ था। मुझे डर था कि आरोपी उसे या बच्चों को नुकसान ना पहुंचाएं। पर मेरी पत्नी को इंसाफ चाहिए था। उसने ये लड़ाई लड़ने की हिम्मत की तो मैंने भी उसका साथ देने का तय किया।
सात-आठ महीने लग गए तब FIR दर्ज हुई
पीड़िता बताती हैं कि उन्हें घर से निकलने में डर लगता था। इसलिए अक्टूबर 2013 में उन्होंने फुगना पुलिस स्टेशन में डाक के जरिए अपनी शिकायत भेजी। दो महीने बीत गए लेकिन उस खत पर ना कोई कार्रवाई हुई ना कोई पूछताछ करने आया। उसके बाद मैंने और मेरे पति से कई महीनों तक एक थाने से दूसरे थाने चक्कर लगाए। इधर-उधर भटके तब जाकर हमारी FIR दर्ज हुई।
वहीं दूसरी तरफ हमारा घर चला गया था। करीब 2 साल तो हम अपने वकील की मदद से दिल्ली में छुपे रहे। उसके बाद हम शामली आ गए। यहां ना घर था ना कोई कामकाज। सब कुछ नए सिरे से शुरू करना था। सरकार की तरफ से हमें 5 लाख रुपए का मुआवजा मिला था। उसी की मदद से हमने जमीन ली और 2 कमरों का घर बनवाया। बच्चे का स्कूल में एडमीशन करवाया। मेरे पति सिलाई का काम शुरू कर दिया। कुछ थोड़े बहुत पैसे आ जाते थे।
आरोपी मेरे बच्चों को जान से मारने की धमकी देते थे
जिंदगी पटरी पर आने लगी थी कि उन आरोपियों को पता चल गया हम कहां रहते हैं। वो कभी हमारे सामने तो नहीं आए लेकिन रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों को धमकी देते थे। केस वापस लेने को कहते। जब हम पीछे नहीं हटे तो उन्होंने मेरे बच्चों को नुकसान पहुंचाने की धमकी दी।
हम डर गए कि कहीं वो हमारे बच्चों को कुछ ना कर दें। लेकिन हमारी वकील वृंदा ग्रोवर ने पहले ही कहा था कि वो हमें तोड़ने की कोशिश करेंगे लेकिन पीछे नहीं हटना है। जैसे-तैसे डर डरकर हमने ये 10 साल काटे। आखिरकार हमें इंसाफ मिला। मार्च 2023 में कोर्ट के सभी आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। हालांकि इस दौरान एक आरोपी कुलदीप की मौत हो चुकी थी तो उसके खिलाफ मुकदमा रद्द हो गया।
…आखिर में पीड़िता बताती हैं कि मुझे लगता है कि मैं पढ़ी-लिखी होती तो मेरे केस का फैसला इतने दिन ना टलता। इसलिए अब मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। अपने बच्चों की किताबें पढ़ती हूं और फिर उन्हें ही पढ़ाती हूं।
- मुजफ्फरनगर दंगा के दो पार्ट आप नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं…
मुजफ्फरनगर का कवाल गांव। सचिन पूजा का सामान लेने बाजार गया। रास्ते में उसे छोटा भाई गौरव स्कूल से आते हुए दिखा। सचिन और गौरव साथ में घर जाने लगे। घर से करीब 1 किलोमीटर पहले गौरव की साइकिल शाहनवाज की बाइक से टकरा गई। शाहनवाज को गुस्सा आया। इधर सचिन और गौरव भी पीछे नहीं हटे। गाली-गलौज हुई। आस-पास के लोग इकट्ठा हुए तो मारपीट शुरू हो गई।
भीड़ से बचकर शाहनवाज वहां से निकला। पास में सैलून था। वो वहां से छूरा लेकर आया। सचिन ने शाहनवाज का हाथ मोड़ा और छूरा छीनकर उसे ही मार दिया। शाहनवाज गिरकर तड़पने लगा। आस-पास के लोगों ने खून देखा तो सचिन-गौरव को पीटने लगे। दोनों की मौके पर ही हत्या कर दी। सचिन और गौरव की खून से लथपथ लाश सड़क पर पड़ी थी। शरीर पर एक कपड़ा तक नहीं बचा था। कुछ देर बाद… शाहनवाज की भी हालत बिगड़ने लगी। उसने भी दम तोड़ दिया।
मुजफ्फरनगर दंगा पार्ट 2: तलवार उठाई...मेरे पति का गला काट दिया
सितंबर 2013. शामली का लिसाढ़ गांव। आस-पास के इलाकों में 62 और इस गांव में 13 लोगों की मौत हुई। सैकड़ों लोग घायल हुए। लेकिन 10 साल पहले खून, चीथड़ों और चीखों से दहला हुआ शहर अब धीरे-धीरे नॉर्मल होने लगा है। रौनकों में डूबने लगा है। एक रोज खून से सनी सड़कों पर अब गाड़ियां फर्राटे भरने लगी हैं। पर हादसे में अपनों को खो चुके परिवार अब भी साल 2013 के सितंबर में अटके हैं।
गांव में 7 सितंबर की शाम तक सब ठीक था। तभी कुछ लोग पंचायत से लौटे। हाथ में लाठी-डंडे और तलवारें थीं। उन्होंने मुसलमान घरों को चुन-चुनकर आग लगा दी। जो भाग सकते थे, वह घर छोड़कर भाग गए। लेकिन 13 लोग नहीं भाग पाए, वे सभी मारे गए। 11 लोगों की लाशें आज 10 साल बीत जाने के बाद भी नहीं मिलीं। जो 2 लाशें नहर में मिली, वे गांव से 30 किलोमीटर दूर मिलीं।
इस घटना के बाद कोई भी मुस्लिम परिवार वापस लिसाढ़ नहीं गया। सभी विस्थापित हो गए। इन सबका कोई कसूर नहीं था। फिर भी मुजफ्फरनगर दंगे की आग में झुलस गए। दंगे को आज 10 साल हो गए।